यह कहानी एक पेड़ की है, जो हजारों वर्षों से भारत के बदलते इतिहास का गवाह रहा है. इसने सम्राट अशोक का स्वर्णिम काल देखा, स्वतंत्रता संग्राम की हलचल महसूस की. महात्मा बुद्ध को अपनी छांव दी. इन सबके बीच, तमाम विपदाएं भी झेलीं. इस पेड़ को जलाया गया, काटा गया. लेकिन इसकी जड़ों ने बार-बार जीवित होकर (existence has not ended) फिर से एक पेड़ का रूप ले लिया.
existence has not ended – इतिहास, आस्था और चमत्कारों से जुड़ी एक अद्भुत विरासत बोधि वृक्ष.है. ‘बोधि’ शब्द का अर्थ है ‘ज्ञान’ और ‘वृक्ष’ यानी पेड़ इस तरह यह बना ज्ञान का पेड़. यह पवित्र वृक्ष बिहार के गया जिले के बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर परिसर में स्थित है. माना जाता है कि ईसा पूर्व 531 में महात्मा बुद्ध ने इसी वृक्ष के नीचे तपस्या कर जीवन का परम सत्य प्राप्त किया था.
सम्राट अशोक की रानी ने कटवा दिया था ये पेड़
इस पेड़ को लेकर कई कहानियां हैं. ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में जब सम्राट अशोक बौद्ध धर्म अपना चुके थे. किंवदंती है कि अशोक की पत्नी तिष्यरक्षिता ने ईर्ष्या में आकर चोरी-छिपे इस पेड़ को कटवा दिया. उस समय सम्राट किसी यात्रा पर थे. हालांकि, वृक्ष पूरी तरह नष्ट नहीं हो सका और कुछ ही वर्षों में उसकी जड़ों से फिर एक नया पेड़ उग आया. यह बोधि वृक्ष की दूसरी पीढ़ी माना जाता है, जो करीब 800 वर्षों तक जीवित रहा.
बंगाल के राजा ने आग से नष्ट करने की कोशिश की
इस पेड़ पर दूसरी बार फिर विपदा आई. सातवीं शताब्दी में बंगाल के राजा शशांक, जो बौद्ध धर्म का कट्टर विरोधी था, उसने इस वृक्ष को जड़ से खत्म करने की कोशिश की. उसने पेड़ को कटवाया और उसकी जड़ों में आग भी लगवा दी, लेकिन फिर भी पेड़ पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ.
बोधि वृक्ष का श्रीलंका से कनेक्शन
सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म प्रचार हेतु श्रीलंका भेजा था. उन्होंने साथ में बोधि वृक्ष की टहनी भी दी थी, जिसे अनुराधापुरा में लगाया गया. वह वृक्ष आज भी वहां जीवित है और श्रीलंका की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों में शामिल है. अनुराधापुरा श्रीलंका की आठ विश्व धरोहर स्थलों में से एक है.